Friday, August 12, 2016

जब कोई साया नहीं मिलता तो याद आती है मां


मौत की आगोश में जब थक के सो जाती हैं माँ
तब कही जाकर सुकू थोडा सा पा जाती हैं मां
फ़िक्र में बच्चों की कुछ इस तरह घुल जाती है माँ ।
नौजवान होते हुए बूढी नज़र आती है माँ ॥

रूह के रिश्ते की ये गहराईयां तो देखिये ।
चोट लगती है हमें और चिल्लाती है माँ ॥
कब ज़रुरत हो मेरे बच्चों को इतना सोच कर ।
जागती रहती हैं आखें और सो जाती है माँ ॥
हुदीयों का रस पिला कर अपने दिल के चैन को ।
कितनी ही रातों में खाली पेट सो जाती है माँ ॥
जाने कितनी बर्फ़ सी रातों मे ऎसा भी हुआ ।
बच्चा तो छाती पे है गीले में सो जाति है माँ ॥
जब खिलौने को मचलता है कोई गुरबत का फूल ।
आंसूओं के साज़ पर बच्चे को बहलाती है माँ ॥
फ़िक्र के शमशान में आखिर चिताओं की तरह ।
जैसी सूखी लकडीयां, इस तरह जल जाती है माँ ॥
अपने आंचल से गुलाबी आंसुओं को पोंछ कर ।
देर तक गुरबत पे अपने अश्क बरसाती है माँ ॥
सामने बच्चों के खुश रहती है हर इक हाल में ।
रात को छुप छुप के अश्क बरसाती है माँ ॥
पहले बच्चों को खिलाती है सकूं-औ-चैन से ।
बाद मे जो कुछ बचा हो शौक से खाती है माँ ॥
मांगती ही कुछ नहीं अपने लिए अल्लाह से ।
अपने बच्चों के लिए दामन को फ़ैलाती है माँ ॥
गर जवाँ बेटी हो घर में और कोई रिश्ता न हो ।
इक नए एहसास की सूलि पे चढ़ जाती है माँ ॥
हर इबादत हर मोहब्बत में नहीं है इक ग़र्ज ।
बे-ग़र्ज़, बे-लूस, हर खिदमत को कर जाति है माँ ॥
बाज़ूओं में खींच के आ जाएगी जैसे कायनात ।
अपने बच्चे के लिये बाहों को फैलाती है मां ॥
ज़िन्दगी के सफ़र में गर्दिशों की धूप में ।
जब कोई साया नहीं मिलता तो याद आती है मां ॥
प्यार कहते हैं किसे और ममता क्या चीज़ है ।
कोई उन बच्चों से पूछे जिनकी मर जाती है मां ॥
सफ़ा-ए-हस्ती पे लिखती है ऊसूल-ए-ज़िन्दगी ।
इस लिये एक मुक्ताब-ए-इस्लाम कहलाती है मां ॥
उस नई दुनिया को दिये मासूम रहबर इस लिये ।
अज़्मतों में सानी-ए-कुरान कहलाती है मां ॥
घर से जब परदेस जाता है कोई नूर-ए-नज़र ।
हाथ में कुरान ले कर दर पे आ जाती है मां ॥
दे कर बच्चे को ज़मानत में रज़ा-ए-पाक की ।
पीछे पीछे सर झुकाए दूर तक जाती है मां ॥
कांपती आवाज़ से कहती है “बेटा अलविदा” ।
सामने जब तक रहे हाथों को लहराती है मां ॥
जब परेशानी में घिर जाते हैं हम कभी परदेस में ।
आंसुओं को पोछने ख्वाबों में आ जाती है मां ॥
देर हो जाती है घर आने में अक्सर जब हमें ।
रेत पर मचले हो जैसे ऐसे घबराती है मां ॥
मरते दम तक आ सका बच्चा ना गर परदेस से ।
अपनी दोनों पुतलीयां चौखट पे रख जाती है मां

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